दस पैसे बीस पैसे के
रंग बिरंगे कम्पट
क्या कहे अपने मेरे बारे में
हम थे निरीह लम्पट
कटी पतंग के पीछे
सरपट दौड़ना
पीछे से पेन्सिल को
दातों से तोडना
स्कूल न जाने का
रोज नया बहाना
मुश्किल काम था
मां के लिए हमको जगाना
प्यारी लगती थी चाचा चौधरी
चन्दा मामा की कहानी
सोचते थे कब बड़े होंगे
कब आएगी जवानी
आज रुक रुक कर
बचपन याद आ रहा है
समय तो समय है
पल पल हाथ से जा रहा है ।।